सैफ़ अली ख़ान के लिए 'लालच' इतना ज़रूरी क्यों?

सितंबर 2018 में नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी नंदिता दास की फ़िल्म 'मंटो' में सआदत हसन मंटो बने और ठीक पाँच महीने बाद बाल ठाकरे बने.


नवाज़ुद्दीन कह सकते हैं कि एक कलाकार हर भूमिका निभाने के लिए आज़ाद होता है और उसके अभिनय में किसी किरदार को लेकर कोई दीवार नहीं होनी चाहिए.


अभिनेता मोहम्मद ज़ीशान अयूब कहते हैं कि मंटो उनके पसंदीदा किरदार हैं लेकिन उन्हें बाल ठाकरे का रोल मिलता, तो वो स्क्रिप्ट पढ़ने के बाद ही कोई फ़ैसला लेते.


ज़ीशान कहते हैं, "बाल ठाकरे का किरदार निभाने में कोई दिक़्क़त नहीं है लेकिन मैं प्रोपेगेंडा नहीं करूंगा. मैं हिटलर को हिटलर दिखाने वाला किरदार करूंगा लेकिन राष्ट्रभक्त दिखाने वाला नहीं करूंगा."


वरिष्ठ फ़िल्म पत्रकार ज़िया उस सलाम कहते हैं कि कलाकार के किरदार में विविधता होनी चाहिए लेकिन मंटो की बात करने वाला कलाकार अचानक बाल ठाकरे की प्रोपेगेंडा फ़िल्म में काम कैसे कर सकता है? सलाम कहते हैं कि ये लालच और डर का तर्क है. क्या यही लालच सैफ़ अली ख़ान के भीतर भी हावी था?